Janmashtami in Maharashtra in old days: महाराष्ट्र मे पुराने जमाने मे मनाई जाने वाली जन्माष्टमी/ गोकुलाष्टमी
भारतवर्ष के दो आराध्य देवता भगवान श्रीराम तथा श्रीकृष्ण ये केवल भारत में ही नहीं अपितु भारतके बाहर दुनिया के हर हिस्से में किसी न किसी रूप में पूजे जाते रहे है। आज, श्रावण माह के कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि को महायोगेश्वर भगवान श्रीकृष्णका अवतार प्राकट्य दिवस है। इसे जन्माष्टमी, गोकुल अष्टमी या और और नामोंसे जाना जाता है। यह दिवस भारतभर में किसी न किसी रूप में मनाया जाता है। इतनाही नहीं, पिछले कुछ दशकोंसे विदेशोंमे भी यह दिन मनाया जा रहा है। महाराष्ट्र में गोकुलअष्टमी के दूसरे दिन को दही हण्डी के रूप में मनाया जाता है।
आजकल इस उत्सव का रूप काफी बदल गया है। लेकिन प्रस्तुत लेख में, आजसे 50-55 साल पहले, महाराष्ट्र में यह उत्सव किस प्रकार मनाया जाता था, यह मेरे स्वयं के अनुस्मरण के आधार पर लिखा जाता है।
श्रावण (सावन) का महीना यह चातुर्मास (चौमासा) का पहिला महीना होता है। यह चार महीने दरअसल वर्षा ऋतु तथा शरद ऋतु के होते है। इन चार महीनों में बारिश की वजहसे वातावरण में नमी होती है, जिसकी वजहसे पाचन शक्ति कमजोर होती है। वातावरण में नमी की वजहसे तथा कीचड़ आदि की वजहसे सूक्ष्म जीव जंतुओंकी उत्पत्ति बहुतायत में होती है। शायद यही वजह है कि हमारे पूर्वजोंने इन चार महीनों में अनेक प्रकारके व्रतों आदि कि व्यवस्था कर दी जिनमे उपवास एक मुख्य अंग होता था। महाराष्ट में भाविक लोग श्रावण मास के सारे सोमवारको उपवास रखते है। इसी प्रकार गोकुलअष्टमी के दिन भी उपवास रखा जाता है।
आजसे 50-60 वर्ष पहिले, इस प्रकार, श्रावण का महीना शुरू होते ही गावोंमे तथा शहरोंमे एक प्रकारका धार्मिक वातावरण तयार होता था। श्रावण मास में आनेवाला पहिला त्यौहार रक्षा बंधन का होता था। उसके आठ दिन बाद आता था गोकुल अष्टमी का त्यौहार.
अष्टमी के दिन भगवान श्रीकृष्ण के आगमन के उपलक्ष्य में घर के बड़े बूढ़े उपवास रखते थे। कई बार उसमे बच्चे भी शामिल होते थे।
Janmashtami in Maharashtra in old days
उस दिन हर घर में मिट्टी से बनी हुई गोकुल कि प्रतिकृति बनाई जाती थी। इसमे हर किसी की कलात्मकता और सृजनता को खूब अवसर मिलता था। बच्चे सुबहही खेतोंमे जाकर वहाँसे काली मिट्टी लेकर आते थे। घरकी महिलाएं उसे साफ करती थी, फिर उस मिट्टीमे पानी डालकर उसे अच्छी तरह से गूँथ कर फिर उससे गोकुल की विविध आकृतियाँ बनाई जाती थी। घरमे जो लकडीके तख्ते होते थे उनमेसे एक अच्छासा तख्ता लेकर उसपर पहले मिट्टी से गोकुल की तटबंदी यानि चारों ओर कि सीमा बनाई जाती थी। फिर उसके अंदर विविध प्रकारकी आकृतियाँ बनाई जाती थी। उसमे गोप और गोपियाँ होती थी, गौएँ होती थी, नन्द बाबा और यशोदा मैया होती थी, पूतना की भी मूर्ति बनाई जाती थी! गाँव में कुत्ता और गधा भी दिखाया जाता था। आटा चक्की, ओखली, चूल्हा, बर्तन, रोटियाँ, माखनके बर्तन, यह सब। तुलसी वृंदावन और उसमे एक छोटासा तुलसीका पौधा। नन्द बाबा के घरमे कन्हैया का पालना सजाया जाता और उसमे छोटीसी कन्हैयाकी मूर्ती! फिर उस गोकुल को जोवार के दानोसे तथा फूल और पत्तोंसे सजाया जाता। यह गोकुल बनाने मे घरकी सभी सदस्योंका सहयोग होता था और उसमे एक अलग ही आनंद आता था। बाल कन्हैया के प्रशादी के तौर पर सोंठ और चीनी का प्रशाद बनाया जाता था। कहीं कहीं उसमे धनिया, खसखस, नारियल की गिरी, आदि भी डाले जाते थे। गोंद के लड्डू भी कहीं कहीं बनाए जाते थे।
शाम के बाद, देर रात मे फिर श्रीकृष्ण का जन्म उत्सव मनाया जाता था। श्रीकृष्ण को पालने मे डालकर झुलाया जाता था और पालने गाए जाते थे।
दूसरे दिन दोपहर के पश्चात, गाँव के मुख्य चौराहोंपे दही हांडी का उत्सव होता था। ऊंची जगहोंपर रस्सी बाँधकर उसमे बीचोंबीच सजाया हुवा मटका बांधते थे। उसमे गीले पोहे, फूली हुवी जोवार, कच्चे आम का आचार, नींबू का आचार, ककड़ी, अनार, अमरूद भीगी हुवी चने की दाल, दही, आदिसे बना हुवा मिश्रण, जिसे ‘गोपाल काला’ कहते है, वह भरा होता था। मनचले नवजवानोंकी टोली, जिन्हे ‘गोविन्दा’ कहा जाता था, वे पिरामिड बनाकर उस हांडी को फोड़ते थे। इसके लिए बड़े बड़े ईनाम भी कहीं कहीं लगाए जाते थे।
गाँव के मंदिरोंमे अष्टमी के शाम को कीर्तनकार कृष्ण जन्म की कथा करते थे, और वहाँ भी कृष्ण जन्म सार्वजनिक रूप से मनाया जाता था। वहाँ तब दही हांडी छोटे रूप मे होती थी।
आजकल पिछले कुछ वर्षोंसे दही हांडी का स्वरूप दिन ब दिन व्यावसायिक होते जा रहा है। मुंबई जैसे महानगरोंमे सेंकड़ों गोविन्दा मण्डल बने हुवे है, जिनमे तथाकथित ‘समाजसेवकों’ का सहभाग है और आजकल तो राजनीतिक दल भी इसमे बढ़ चढ़ कर हिस्सा लेते है। हर एक गुट का, हर दल का अपना गोविन्दा दल होता है। लाखों, करोड़ों रुपए इसमे खर्च किए जाते है। जोर जोर से डीजे और अन्य वाद्य बजाकर जुलूस निकाले जाते है। लड़कियों के भी गोविन्दा दल होते है। वे भी इसमे बढ़ चढ़ कर हिस्सा लेती है। कई ‘गोविन्दा’ ऊंची ऊंची हाँडियोंको फोड़ते हुवे घायल भी हो जाते है। सरकारने उनका बीमा भी करवाया है!
दही हांडी का उत्सव अब महाराष्ट्र तक सीमित नही रहा है। यह भारतके अन्य शहरोंमे भी धूमधामसे मनाया जा रहा है।
पुराने जमानेकी , सादगी से मनाये जा रहे उत्सवोंकी और परंपराओंकी यादें अब धूमिल होते जा रही है। इस वर्ष गोकुल अष्टमी (जन्माष्टमी) के अवसर पर उन पुरानी सुनहरी यादों को ताजा करने की यह एक कोशिश है।
आप सब को इस जन्माष्टमी की बहुत बहुत शुभकामनाएं।
अगर आपको यह प्रयास अच्छा लगा होगा तो अपना अभिप्राय नीचे कॉमेंट्स मे अवश्य दें।
माधव भोपे
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Very good article