राजस्थानमें हुवे ईश्वरप्राप्त संत स्वामी रामसुख दासजी महाराज इनकी पूरी आयु साधकों को मार्गदर्शन करने मे व्यतीत की। वह बहुतही सरल भाषा में गहरे विषयोंमे मार्गदर्शन करते थे। उनके प्रवचन सुनने के लिए हृषिकेश में तथा बीकानेर अथवा जहाँ जहाँ भी उनके प्रवचन होते थे तो लोगोंकी भीड़ उमड़ती थी।
यहाँ ऐसे ही उनके प्रवाचनोंमे उन्होंने भगवन्नाम की महत्ता बताते हुवे साधकोंके शंकाओं का निरसन भी किया हुवा है। वह वाचकों के लिए प्रस्तुत है।
आशा है परमात्म प्रेमी साधकों को यह उपयुक्त लगेगा।
Nam jap chanting holy name
नाम-जपकी महिमा
नाम-जपमें भाव कम भी रहे तो भी नाम जपनेसे लाभ तो होगा ही, पर कब होगा- इसका पता नहीं। नाम-जपकी संख्या ज्यादा बढ़नेसे भी भाव बन जाता है, क्योंकि नाम-जप करनेवालेके भीतर सूक्ष्म भाव रहता ही है, वह भाव नामकी संख्या बढ़नेसे प्रकट हो जाता है।
नाम-जप कर्म नहीं है, बल्कि पूजा है; क्योंकि नाम-जप में जपकर्ता का लक्ष्य ईश्वर से सम्बन्ध होता है। जैसे कर्मों से कल्याण नहीं होता। कर्म अपना फल देते हैं और नष्ट हो जाते हैं, लेकिन कर्मों में निःस्वार्थता की प्रधानता होने के कारण वे कल्याणप्रदायक बन जाते हैं। इसी प्रकार, नाम-जप के साथ भगवान का मुख्य लक्ष्य, नाम-जप भगवान को प्राप्त करने का साधन बन जाता है। ईश्वर का मुख्य लक्ष्य होने से नाम प्रतीकात्मक हो जाता है, फिर उसमें क्रिया नहीं रहती। इसके अलावा नाम जपने वाले में भी वह प्रतीकात्मकता आ जाती है अर्थात् नाम जपने वाले का शरीर भी प्रतीकात्मक हो जाता है। उसके शरीर की जड़ता मिट जाती है। उदाहरण के लिए, तुकारामजी महाराज अपने शरीर के साथ वैकुण्ठ चले गये। मीराबाई का शरीर भगवान के विग्रह में समा गया।
कबीरजीका शरीर अदृश्य हो गया और उसके स्थानपर लोगोंको पुष्प मिले। चोखामेलाकी हड्डियोंसे ‘विठ्ठल’ नामकी ध्वनि सुनाई पड़ती थी।
प्रश्न – शास्त्रों, सन्तोंने भगवन्नामकी जो महिमा गायी है, वह कहाँतक सच्ची है ?
उत्तर- शास्त्रों और सन्तोंने नामकी जो महिमा गायी है, वह पूरी सच्ची है।
इतना ही नहीं, आजतक जितनी नाम- महिमा गायी गयी है, उससे नाम-महिमा पूरी नहीं हुई है, प्रत्युत अभी बहुत नाम-महिमा बाकी है। कारण कि भगवान् अनन्त हैं; अतः उनके नामकी महिमा भी अनन्त है-
‘हरि अनंत हरि कथा अनंता’ (मानस १ । १४० । ३) ।
नामकी पूरी महिमा स्वयं भगवान् भी नहीं कह सकते – ‘रामु न सकहिं नाम गुन गाई’ (१।२६।४) ।
प्रश्न- नामकी जो महिमा गायी गयी है, वह नाम-जप करनेवाले व्यक्तियोंमें देखनेमें नहीं आती, इसमें क्या कारण है ?
उत्तर– नामके माहात्म्यको स्वीकार न करनेसे नामका तिरस्कार, अपमान होता है; अतः वह नाम उतना असर नहीं करता।
नामजपमें मन न लगानेसे, इष्टके ध्यानसहित नाम-जप न करनेसे, हृदयसे नामको महत्त्व न देनेसे, आदि-आदि दोषोंके कारण नामका माहात्म्य शीघ्र देखनेमें नहीं आता। हाँ किसी प्रकारसे नामजप मुखसे चलता रहे तो उससे भी लाभ होता ही है, पर इसमें समय लगता है। मन लगे चाहे न लगे, पर नाम-जप निरन्तर चलता रहे, कभी छूटे नहीं तो नाम-महाराजकी कृपासे सब काम हो जायगा अर्थात् मन लगने लग जायगा, नामपर श्रद्धा-विश्वास भी हो जायँगे, आदि-आदि ।
अगर भगवन्नाममें अनन्यभाव हो और नामजप निरन्तर चलता रहे तो उससे वास्तविक लाभ हो ही जाता है; क्योंकि भगवान्का नाम सांसारिक नामोंकी तरह नहीं है। भगवान् चिन्मय हैं; अतः उनका नाम भी चिन्मय (चेतन) है। राजस्थानमें बुधारामजी नामक एक सन्त हुए हैं। वे जब नाम-जपमें लगे, तब उनको नाम-जपके बिना थोड़ा भी समय खाली जाना सुहाता नहीं था। जब भोजन तैयार हो जाता, तब माँ उनको भोजनके लिये बुलाती और वे भोजन करके पुनः नाम-जपमें लग जाते। एक दिन उन्होंने माँसे कहा कि
“माँ ! रोटी खानेमें बहुत समय लगता है; अतः केवल दलिया बनाकर थालीमें परोस दिया कर और जब वह थोड़ा ठण्डा हो जाया करे, तब मेरेको बुलाया कर।“
माँने वैसा ही किया। एक दिन फिर उन्होंने कहा कि “माँ ! दलिया खानेमें भी समय लगता है; अतः केवल राबड़ी बना दिया कर और जब वह ठण्डी हो जाया करे, तब बुलाया कर।“
इस तरह लगनसे नाम-जप किया जाय तो उससे वास्तविक लाभ होता ही है।
शङ्का – अगर श्रद्धा-विश्वासपूर्वक किये हुए नाम-जपसे ही लाभ होता है, तो फिर नामकी महिमा क्या हुई ? महिमा तो श्रद्धा-विश्वासकी ही हुई ?
समाधान – जैसे, राजाको राजा न माननेसे राजासे होनेवाला लाभ नहीं होता;
पण्डितको पण्डित न माननेसे पण्डितसे होनेवाला लाभ नहीं होता; सन्त-महात्माओंको सन्त-महात्मा न माननेसे उनसे होनेवाला लाभ नहीं होता; भगवान् अवतार लेते हैं तो उनको भगवान् न माननेसे उनसे होनेवाला लाभ नहीं होता, परंतु राजा आदिसे लाभ न होनेसे राजा आदिमें कमी थोड़े ही आ गयी ? कमी तो न माननेवालीकी ही हुई। ऐसे ही जो नाममें श्रद्धा-विश्वास नहीं करता, उसको नामसे होनेवाला लाभ नहीं होता, पर इससे नामकी महिमामें कोई कमी नहीं आती। कमी तो नाममें श्रद्धा-विश्वास न करनेवालेकी ही है।
नाममें अनन्त शक्ति है। वह शक्ति नाममें श्रद्धा-विश्वास करनेसे तो बढ़ेगी और श्रद्धा-विश्वास न करनेसे घटेगी – यह बात है ही नहीं। हाँ, जो नाममें श्रद्धा-विश्वास करेगा, वह तो नामसे लाभ ले लेगा, पर जो श्रद्धा-विश्वास नहीं करेगा, वह नामसे लाभ नहीं ले सकेगा। दूसरी बात, जो नाममें श्रद्धा- विश्वास नहीं करता, उसके द्वारा नामका अपराध होता है। उस अपराधके कारण वह नामसे होनेवाले लाभको नहीं ले सकता।
प्रश्न – श्रद्धा-विश्वासके बिना भी अग्निको छूनेसे हाथ जल जाता है, फिर श्रद्धा-विश्वासके बिना नाम लेनेसे उसकी महिमा तत्काल प्रकट क्यों नहीं होती ?
उत्तर- अग्नि भौतिक वस्तु है और वह भौतिक वस्तुओंको ही जलाती है; परन्तु भगवान्का नाम अलौकिक, दिव्य है। नाम-जप करनेवालेका नाममें ज्यों-ज्यों भाव बढ़ता है, त्यों-त्यों उसके सामने नामकी महिमा प्रकट होने लगती है, उसको नाम-महिमाकी अनुभूति होने लगती है, नाममेंनाम-जपकी महिमा विचित्रता, अलौकिकता दीखने लगती है। नाममें एक विचित्रता है कि मनुष्य बिना भाव, श्रद्धाके भी हरदम नाम लेता रहे तो उसके सामने नामकी शक्ति प्रकट हो जायगी, पर उसमें समय लग सकता है।
प्रश्न- क्या एक बार नाम लेनेसे ही सब पाप नष्ट हो जाते हैं ?
उत्तर- हाँ, आर्तभावसे लिये हुए एक नामसे ही सब पाप नष्ट हो जाते हैं।
मनुष्यको अन्तसमयमें मृत्युसे छुड़ानेवाला कोई भी नहीं दीखता, वह सब तरफसे निराश हो जाता है, उस समय आर्तभावसे उसके मुखसे एक नाम भी निकलता है तो वह एक ही नाम उसके सम्पूर्ण पापोंको नष्ट कर देता है। जैसे गजेन्द्रको ग्राह खींचकर जलमें ले जा रहा था। गजेन्द्रने देखा कि अब मुझे कोई छुड़ानेवाला नहीं है, अब तो मौत आ गयी है, तो उसने आर्तभावसे एक ही बार नाम लिया। नाम लेते ही भगवान् आ गये और उन्होंने ग्राहको मारकर गजेन्द्रको छुड़ा लिया।जिसका भगवान्के नाममें अटूट श्रद्धा-विश्वास है, अनन्यभाव है, उसका एक ही नामसे कल्याण हो जाता है।
प्रश्न- जब एक ही नामसे सब पाप नष्ट हो जाते हैं, तो फिर बार-बार नाम लेनेकी क्या आवश्यकता है ?
उत्तर-बार-बार नाम लेनेसे ही वह एक आर्तभाव- वाला नाम निकलता है। जैसे मोटरके इंजनको चालू करनेके लिये बार-बार हैण्डल घुमाते हैं तो हैण्डलको पहली बार घुमानेसे इंजन चालू होगा या पाँचवीं, दसवीं अथवा पंद्रहवीं बार घुमानेसे इंजन चालू होगा- इसका कोई पता नहीं रहता। परन्तु हैण्डलको बार-बार घुमाते रहनेसे किसी-न-किसी घुमावमें इंजन चालू हो जाता है। ऐसे ही बार-बार भगवन्नाम लेते रहनेसे कभी-न-कभी वह आर्तभाव- वाला एक नाम आ ही जाता है। अतः बार-बार नाम लेना बहुत जरूरी है।
प्रश्न – जो मनुष्य नाम-जप तो करता है, पर उसके द्वारा निषिद्ध कर्म भी होते हैं, उसका उद्धार होगा या नहीं ?
उत्तर- समय पाकर उसका उद्धार तो होगा ही; क्योंकि किसी भी तरहसे लिया हुआ भगवन्नाम निष्फल नहीं जाता। परन्तु नामजपका जो प्रत्यक्ष प्रभाव है, वह उसके देखनेमें नहीं आयेगा। वास्तवमें देखा जाय तो जिसका एक परमात्माको ही प्राप्त करनेका ध्येय नहीं है, उसीके द्वारा निषिद्ध कर्म होते हैं।
जिसका ध्येय एक परमात्मप्राप्तिका ही है, उसके द्वारा निषिद्ध कर्म हो ही नहीं सकते। जैसे, जिसका ध्येय पैसोंका हो जाता है, वह फिर ऐसा कोई काम नहीं करता, जिससे पैसे नष्ट होते हों। वह पैसोंका नुकसान नहीं सह सकता; और कभी किसी कारणवश पैसे नष्ट हो जायँ तो वह बेचैन हो जाता है। ऐसे ही जिसका ध्येय परमात्मप्राप्तिका बन जाता है, वह फिर साधनसे विपरीत काम नहीं कर सकता। अगर उसके द्वारा साधनसे विपरीत कर्म होते हैं तो इससे सिद्ध होता है कि अभी उसका ध्येय परमात्मप्राप्ति नहीं बना है।
साधकको चाहिये कि वह परमात्मप्राप्तिका ध्येय दृढ़ बनाये और नाम-जप करता रहे तो फिर उससे निषिद्ध क्रिया नहीं होगी। कभी निषिद्ध क्रिया हो भी जायगी तो उसका बहुत पश्चात्ताप होगा, जिससे वह फिर आगे कभी नहीं होगी ।
प्रश्न- जिसके पाप बहुत हैं, वह भगवान्का नाम नहीं ले सकता; अतः वह क्या करे ?
उत्तर- बात सच्ची है। जिसके अधिक पाप होते हैं, वह भगवान्का नाम नहीं ले सकता।
वैष्णवे भगवद्भक्तौ प्रसादे हरिनाम्न्नि च । अल्पपुण्यवतां श्रद्धा यथावन्नैव जायते ।।
अर्थात् जिसका पुण्य थोड़ा होता है, उसकी भक्तोंमें, भक्तिमें, भगवत्प्रसादमें और भगवन्नाममें श्रद्धा नहीं होती।
जैसे पित्तका जोर होनेपर रोगीको मिश्री भी कड़वी लगती है। परन्तु यदि वह मिश्रीका सेवन करता रहे तो पित्त शान्त हो जाता है और मिश्री मीठी लगने लग जाती है। ऐसे ही पाप अधिक होनेसे नाम अच्छा नहीं लगता; परन्तु नाम-जप करना शुरू कर दे तो पाप नष्ट हो जायँगे और नाम अच्छा, मीठा लगने लग जायगा तथा नाम-जपका प्रत्यक्ष लाभ भी दीखने लग जायगा।
प्रश्न – जिसके भाग्यमें नाम लेना लिखा है, वह तो नाम ले सकता है, उसके मुखसे नाम निकल सकता है; परंतु जिसके भाग्यमें नाम लेना लिखा ही नहीं, वह कैसे नाम ले सकता है ?
उत्तर-एक ‘होना’ होता है और एक ‘करना’ होता है। भाग्य अर्थात् पुराने कर्मोंका फल होता है और नये कर्म किये जाते हैं, होते नहीं। जैसे व्यापार करते हैं और नफा-नुकसान होता है; खेती करते हैं और लाभ-हानि होती है; मन्त्रका सकामभावसे जप (अनुष्ठान) करते हैं और उसका नीरोगता आदि फल होता है।
बद्रीनारायण जाते हैं- यह ‘करना’ हुआ और चलते-चलते बद्रीनारायण पहुँच जाते हैं- यह ‘होना’ हुआ। दवा लेते हैं – यह ‘करना’ हुआ और शरीर स्वस्थ या अस्वस्थ होता है – यह ‘होना’ हुआ। हानि-लाभ, जीना-मरना, यश-अपयश- ये सब होनेवाले हैं; क्योंकि ये पूर्वजन्ममें किये हुए कर्मोंके फल हैं (सुनहु भरत भावी प्रबल बिलखि कहेउ मुनिनाथ। हानि लाभु जीवनु मरनु जसु अपजसु बिधि हाथ)
परन्तु नाम-जप करना नया काम है। यह करनेका है, होनेका नहीं। इसको करनेमें सब स्वतन्त्र हैं। हाँ, इसमें इतनी बात होती है कि अगर किसीने पहले नाम-जप किया हुआ है तो नाम-जपकी महिमा सुनते ही उसकी नाम-जपमें रुचि हो जायगी और वह सुगमतासे होने लग जायगा । परन्तु पहले जिसका नाम जप किया हुआ नहीं है, वह अगर नामकी महिमा सुने तो उसकी नाम-जपमें जल्दी रुचि नहीं होगी। अगर नाम-जपकी महिमा कहनेवाला अनुभवी हो तो सुननेवालेकी भी नाममें रुचि हो जायगी और उस अनुभवीके सङ्गमें रहनेसे उसके लिये नाम-जप करना भी सुगम हो जायगा।
जो भाग्यमें लिखा है, वह फल होता है, नया कर्म नहीं। नाम-जप करना शुरू कर दें तो वह होने लग जायगा; क्योंकि नाम-जप करना नया कर्म, नयी उपासना है। अतः ‘हमारे भाग्यमें नाम जप करना, सत्सङ्ग करना, शुभ कर्म करना लिखा हुआ नहीं है’ – ऐसा कहना बिलकुल बहानेबाजी है। ‘नाम-जप, सत्सङ्ग आदि हमारे भाग्यमें नहीं हैं’- ऐसा भाव रखना कुसङ्ग है, जो नाम-जप आदि करनेके भावका नाश करनेवाला है।
प्रश्न – नाम-जपसे भाग्य (प्रारब्ध) पलट सकता है ?
उत्तर- हाँ, भगवन्नामके जपसे, कीर्तनसे प्रारब्ध बदल जाता है, नया प्रारब्ध बन जाता है; जो वस्तु न मिलनेवाली हो वह मिल जाती है; जो असम्भव है, वह सम्भव हो जाता है-ऐसा सन्तोंका, महापुरुषोंका अनुभव है।
जिसने कर्मोंक फलका विधान किया है, उसको कोई पुकारे, उसका नाम ले तो नाम लेनेवालेका प्रारब्ध बदलनेमें आश्चर्य ही क्या है ? ये जो लोग भीख माँगते फिरते हैं, जिनको पेटभर खानेको भी नहीं मिलता, वे अगर सच्चे हृदयसे नामजपमें लग जायँ तो उनके पास रोटियोंका, कपड़ोंका ढेर लग जायगा; उनको किसी चीजकी कमी नहीं रहेगी। परन्तु नाम-जपको प्रारब्ध बदलनेमें, पापोंको काटनेमें नहीं लगाना चाहिये। जैसे अमूल्य रत्नके बदलेमें कोयला खरीदना बुद्धिमानी नहीं है, ऐसे ही अमूल्य भगवन्नामको तुच्छ कामोंमें लगाना बुद्धिमानी नहीं है।
प्रश्न- जब केवल नाम जपसे ही सब पाप नष्ट हो जाते हैं, तो फिर शास्त्रोंमें पापोंको दूर करनेके लिये तरह-तरहके प्रायश्चित्त क्यों बताये गये हैं ?
उत्तर- नाम-जपसे ज्ञात, अज्ञात आदि सभी पापोंका प्रायश्चित्त हो जाता है, सभी पाप नष्ट हो जाते हैं; परन्तु नामपर श्रद्धा-विश्वास न होनेसे शास्त्रोंमें तरह-तरहके प्रायश्चित्त बताये गये हैं।
अगर नामपर श्रद्धा-विश्वास हो जाय तो दूसरे प्रायश्चित्त करनेकी जरूरत नहीं है। नाम-जप करनेवाले भक्तसे अगर कोई पाप भी हो जाय, कोई गलती हो जाय तो उसको दूर करनेके लिये दूसरा प्रायश्चित्त करनेकी जरूरत नहीं है। वह नाम-जपको ही तत्परतासे करता रहे तो सब ठीक हो जायगा।
प्रश्न- अगर कोई सकामभावसे नाम-जप करे तो क्या वह नाम-जप फल देकर नष्ट हो जायगा ?
उत्तर- यद्यपि सांसारिक तुच्छ कामनाओंकी पूर्तिके लिये नामको खर्च करना बुद्धिमानी नहीं है, तथापि अगर सकामभावसे भी नाम-जप किया जाय तो भी नामका माहात्म्य नष्ट नहीं होता। नाम-जप करनेवालेको पारमार्थिक लाभ होगा ही; क्योंकि नामका भगवान्के साथ साक्षात् सम्बन्ध है। हाँ, नामको सांसारिक कामनापूर्तिमें लगाकर उसने नामका जो तिरस्कार किया है, उससे उसको पारमार्थिक लाभ कम होगा। अगर वह तत्परतासे नाममें लगा रहेगा, नामके परायण रहेगा तो नामकी कृपासे उसका सकामभाव मिट जायगा। जैसे, ध्रुवजीने सकामभावसे, राज्यकी इच्छासे ही नाम-जप किया था। परन्तु जब उनको भगवान्के दर्शन हुए तब राज्य एवं पद मिलनेपर भी वे प्रसन्न नहीं हुए, प्रत्युत उनको अपने सकामभावका दुःख हुआ अर्थात् उनका सकामभाव मिट गया। जो सकामभावसे नाम-जप किया करते हैं, उनको भी नाम-महाराजकी कृपासे अन्तसमयमें नाम याद आ सकता है और उनका कल्याण हो सकता है !
प्रश्न – शास्त्रोंमें तथा सन्तोंने कहा है कि अमुक संख्यामें नाम-जप करनेसे भगवान्के दर्शन हो जाते हैं, क्या ऐसा होता है ?
उत्तर- हाँ, ‘हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे । हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे ।’
– मन्त्रका साढ़े तीन करोड़ जप करनेसे भगवान्के दर्शन हो जाते हैं- ऐसा ‘कलिसंतरणोपनिषद्’ में आया है। ‘राम’ नामका तेरह करोड़ जप करनेसे भगवान्के दर्शन हो जाते हैं- ऐसा समर्थ रामदास बाबाने ‘दासबोध’ में लिखा है। परन्तु नाममें, भगवान्में श्रद्धा-विश्वास और प्रेम अधिक हो तो उपर्युक्त संख्यासे पहले भी भगवान्के दर्शन हो सकते हैं।
नाम-जपकी महिमा
प्रश्न – ‘नहि कलि करम न भगति बिबेकू । राम नाम अवलंबन एकू ॥’ (मानस १।२७।४) – ऐसा कहनेका क्या तात्पर्य है ?
उत्तर-कलियुगमें यज्ञादि शुभ-कर्मोंका साङ्गोपाङ्ग होना बहुत कठिन है और उनके विधि-विधानको ठीक तरहसे जाननेवाले पुरुष भी बहुत कम रह गये हैं तथा शुद्ध गोघृत आदि सामग्री मिलनी भी कठिन हो रही है। अतः कलियुगमें शुभ-कर्मोंका अनुष्ठान साङ्गोपाङ्ग न होनेसे, उसमें विधि-विधानकी कमी रहनेसे कर्ताको दोष लगता है।
वैधीभक्ति विधि-विधानसे की जाती है। उसमें किस इष्टदेवका किस विधिसे पूजा-पाठ होना चाहिये- इसको जाननेवाले बहुत कम हैं। अतः वह भक्ति करना भी इस कलियुगमें कठिन है।
ज्ञानमार्ग कठिन है और ज्ञानमार्गकी साधना बतानेवाले अनुभवी पुरुषोंका मिलना भी बहुत कठिन है। अतः विवेकमार्गमें चलना कलियुगमें बहुत कठिन है। तात्पर्य है कि इस कलियुगमें कर्म, भक्ति और ज्ञान – इन तीनोंका होना बहुत कठिन है, पर भगवान्का नाम लेना कठिन नहीं है। भगवान्का नाम सभी ले सकते हैं; क्योंकि उसमें कोई विधि-विधान नहीं है। उसको बालक, स्त्री, पुरुष, वृद्ध, रोगी आदि सभी ले सकते हैं और हर समय, हर परिस्थितिमें, हर अवस्थामें ले सकते हैं।
नाम एक सम्बोधन है, पुकार है। उसमें आर्तभावकी ही मुख्यता है, विधिकी मुख्यता नहीं। अतः भगवान्का नाम लेकर हरेक मनुष्य आर्तभावसे भगवान्को पुकार सकता है।
शङ्का-नाम-जपमें मन नहीं लगता और मन लगे बिना नाम-जप करनेमें कुछ फायदा नहीं ! कहा भी है-
माला तो कर में फिरे, जीभ फिरै मुख माहि । मनुवाँ तो चहुँ दिसि फिरै, यह तो सुमिरन नाहिं ॥
समाधान – मन नहीं लगेगा तो ‘सुमिरन’ (स्मरण) नहीं होगा – यह बात सच्ची है, पर नाम-जप नहीं होगा – यह बात दोहेमें नहीं कही गयी है। मन नहीं लगनेसे सुमिरन नहीं होगा तो नहीं सही, पर नाम जप तो हो ही जायगा ! नाम-जप कभी व्यर्थ हो ही नहीं सकता; अतः मन लगे चाहे न लगे, नाम-जप करते रहना चाहिये।
जब मन लगेगा, तब नाम जप करेंगे- ऐसा होना सम्भव नहीं है। हाँ, अगर हम नाम जप करने लग जायें तो मन भी लगने लग जायगा; क्योंकि मनका लगना नाम-जपका परिणाम है।
प्रश्न- शास्त्रमें आता है कि जो नाम नहीं लेना चाहता, जिसकी नामपर श्रद्धा नहीं है, उसको नाम नहीं सुनाना चाहिये; क्योंकि यह नामापराध है; फिर भी गौराङ्ग महाप्रभु आदिने नामपर श्रद्धा न रखनेवालोंको भी नाम क्यों सुनाया ?
उत्तर- जो नाम नहीं सुनना चाहता, मुखसे भी नहीं लेना चाहता, नामका तिरस्कार करता है, उसको नाम नहीं सुनाना चाहिये – यह विधि है, शास्त्रकी आज्ञा है; फिर भी सन्त-महापुरुष दया करके उसको नाम सुना देते हैं। उनकी दयामें विधि-निषेध लागू नहीं होता। विधि-निषेध, ‘कर्म’ में लागू होता है और ‘दया’ कर्मसे अतीत है।
दया अहैतुकी होती है, हेतुके बिना की जाती है। जैसे, कोई भगवत्प्राप्त सन्त-महापुरुष अपनी सामर्थ्यसे दूसरेको कोई चीज देता है तो यह चीज लेनेवालेके पूर्वकर्मका फल नहीं है यह तो उस सन्त-महापुरुषकी दया है। ऐसे ही गौराङ्ग महाप्रभु आदि सन्तोंने दया परवश होकर दुष्ट, पापी व्यक्तियोंको भी भगवन्नाम सुनाया।
प्रश्न – अगर मरणासन्न पशु, पक्षी आदिको भगवत्राम सुनाया जाय तो क्या उनका उद्धार हो सकता है ?
उत्तर-पशु, पक्षी आदि भगवन्नामके प्रभावको नहीं समझते और अपने-आप प्रभाव आ जाय तो वे उसका विरोध भी नहीं करते। वे नामकी निन्दा, तिरस्कार नहीं करते, नामसे घृणा नहीं करते। अतः उनको मरणासन्न अवस्थामें नाम सुनाया जाय तो उनपर नामका प्रभाव काम करता है अर्थात् नामके प्रभावसे उनका उद्धार हो जाता है।
प्रश्न- अन्तसमयमें कोई अपने पुत्र आदिके रूपमें भी ‘नारायण’, ‘वासुदेव’ आदि नाम लेता है तो उसको भगवान् अपना ही नाम मान लेते हैं; ऐसा क्यों ?
उत्तर- भगवान् बहुत दयालु हैं। उन्होंने यह विशेष छूट दी है कि अगर मनुष्य अन्तसमयमें किसी भी बहाने भगवान्का नाम ले ले, उनको याद कर ले तो उसका कल्याण हो जायगा। कारण कि भगवान्ने जीवका कल्याण करनेके लिये ही उसको मनुष्य-शरीर दिया है और जीवने उस२६
मनुष्य-शरीरको स्वीकार किया है। अतः जीवका कल्याण हो जाय, तभी भगवान्का इस जीवको मनुष्य-शरीर देना और जीवका मनुष्य-शरीर लेना सार्थक होगा। परन्तु वह अपना कल्याण किये बिना ही मनुष्य-शरीरको छोड़कर जा रहा है, इसलिये भगवान् उसको मौका देते हैं कि अब जाते-जाते तू किसी भी बहाने मेरा नाम ले ले, मेरेको याद कर ले तो तेरा कल्याण हो जायगा ! जैसे अन्तसमयमें भयानक यमदूत दीखनेपर अजामिलने अपने पुत्र नारायणको पुकारा तो भगवान्ने उसको अपना ही नाम मान लिया और अपने चार पार्षदोंको अजामिलके पास भेज दिया।
तात्पर्य है कि मनुष्यको रात-दिन, खाते-पीते, सोते-जागते, चलते-फिरते, सब समय भगवान्का नाम लेते ही रहना चाहिये।
मनको बार-बार ध्येयमें लगानेका नाम ‘अभ्यास’ है। इस अभ्यासकी सिद्धि समय लगानेसे होती है। समय भी निरन्तर लगाया जाय, रोजाना लगाया जाय। कभी अभ्यास किया, कभी नहीं किया- ऐसा नहीं हो। तात्पर्य है कि अभ्यास निरन्तर होना चाहिये और अपने ध्येयमें महत्त्व तथा आदर-बुद्धि होनी चाहिये। इस तरह अभ्यास करनेसे अभ्यास दृढ़ हो जाता है।
अभ्यासके दो भेद होते हैं- (१) अपना जो लक्ष्य, ध्येय है, उसमें मनोवृत्तिको लगाये और दूसरी वृत्ति आ जाय अर्थात् दूसरा कुछ भी चिन्तन आ जाय, उसकी उपेक्षा कर दे, उससे उदासीन हो जाय।
(२) जहाँ-तहाँ मन चला जाय, वहाँ-वहाँ ही अपने लक्ष्यको, इष्टको देखे ।
उपर्युक्त दो साधनोंके सिवाय मन लगानेके कई उपाय हैं, जैसे-
(१) जब साधक ध्यान करनेके लिये बैठे, तब सबसे पहले दो-चार श्वास बाहर फेंककर ऐसी भावना करे कि मैंने मनसे संसारको सर्वथा निकाल दिया, अब मेरा मन संसारका चिन्तन नहीं करेगा, भगवान्का ही चिन्तन करेगा और चिन्तनमें जो कुछ भी आयेगा, वह भगवान्का ही स्वरूप होगा। भगवान्के सिवाय मेरे मनमें दूसरी बात आ ही नहीं सकती । अतः भगवान्का स्वरूप वही है, जो मनमें आ जाय और मनमें जो आ जाय, वही भगवान्का स्वरूप है – यह
‘वासुदेवः सर्वम्’ का ‘सिद्धान्त है। ऐसा होनेपर मन भगवान्में ही लगेगा; और लगेगा ही कहाँ ?
(२) भगवान्के नामका जप करे, पर जपमें दो बातोंका ख्याल रखे-एक तो नामके उच्चारणमें समय खाली न जाने दे अर्थात् ‘रामराम’ इस तरह नामका भले ही धीरे-धीरे उच्चारण करे, पर बीचमें समय खाली न जाने दे और दूसरे नामको सुने बिना न जाने दे अर्थात् जपके साथ-साथ उसको सुने भी ।
(३) जिस नामका उच्चारण किया जाय, मनसे उस नामका निगरानी रखे अर्थात् उस नामको अंगुली अथवा मालासे न गिनकर मनसे ही नामका उच्चारण करे और मनसे ही नामकी गिनती करे।
(४) एक नामका तो वाणीसे उच्चारण करे और दूसरे नामका मनसे जप करे; जैसे- वाणीसे तो ‘राम-राम-राम’ का उच्चारण करे और मनसे ‘कृष्ण-कृष्ण-कृष्ण’ का जप करे।
(५) जैसे राग-रागिनीके साथ बोलकर नामका कीर्तन करते हैं, ऐसी ही राग-रागिनीके साथ मनसे नामका कीर्तन करे ।
राम.. राम.. राम….